बच्चे नहीं खेलते
गिल्ली-डंडा ,लुका-छिपी
सतोलिया, मारदड़ा
नहीं दिखते
भागते दौड़ते
कूदते फांदते
रोते झींकते
गाते गुनगुनाते
गलियों में
बच्चे घरों में हैं
माँ बाप की
चौकस निगाहों के साये में
पढ़ रहे हैं
कम्पूटर के चूहे से खेल रहे हैं
समझदार हो रहे हैं
भविष्य बना रहे हैं
बच्चों के पास किताबें हैं
गेजेट्स हैं
मोबाइल है
समझ है
बचपन नहीं है
नहीं जानते
रेत के घर बनाना
काली कुतिया के पिल्लों की गिनती
मुंडेरों और डाल से गिर कर
नहीं छिलाते घुटने
पतंग ,कंचे ,माचिस की डिब्बी के
खजाने नहीं हैं उन के पास
नहीं जानते
कैसे घिसटा ले जाता है
गाय का नवजात बछड़ा
पेड़ जंगल नदी बारिश
किसी को महसूस नहीं किया
फिर भी सब कुछ जानते हैं बच्चे
टीवी इन्टरनेट से
ज्ञानी हुए बच्चे
सब कुछ जानते हैं
आश्चर्य नहीं होता उन्हें
किसी बात पर
आश्चर्य और उत्सुकता
गढते हैं जीवन
बच्चे पढते हैं जीवन
समझदार बच्चे
पर्यावरण पर भाषण देंगे
वातानुकूलित कक्ष में
नीम और पीपल में
फर्क जाने बिना
3 comments:
बचपन, अब बचपन ना रहा !
ना जाने कहाँ और कैसे खो गया !!
बहुत ही शानदार प्रस्तुति मैंने भी बच्चों की इसी परवरिश पर कुछ लिखा है आप जितना अच्छा तो नहीं मगर फिर भी लिखा है.... समय मिले कभी तो आयेगा मृ पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
सिर्फ और सिर्फ चन्द शब्द , नमन है आपकी लेखनी को ......
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