Friday, December 2, 2011

ek gazal

मायने जिंदगी के बदलते रहे
फैसले कुछ जरूरी थे ,टलते रहे

हाथ की ये लकीरें जो चुभने लगी
हाथ ही हम सिरे से बदलते रहे

सरसराते रहे ,कुलबुलाते रहे
गो कि उड़ ना सके बस उछलते रहे

हम गुबारों को हासिल समझते रहे
कारवां फासले से निकलते रहे

जो उठे सर सभी वो कलम हो गए
चींटियों के मगर पर निकलते रहे

आँख काँटों की फसलें उगाती रही
कुछ दुपट्टे लजाते ,सँभलते रहे

2 comments:

daanish said...

जो उठे सर सभी वो कलम हो गए
चींटियों के मगर पर निकलते रहे

waah-waa ! bahut khoob !!

अनुपमा पाठक said...

बहुत खूब!