जब भी मैंने रात का साया घिरते देखा
साथ सुबह को भी अंगडाई लेते देखा
इक सपना गर लाखों सपनों में ढल जाए
उस सपने को सच में सदा बदलते देखा
तितली के रंगों को छूने की चाहत थी
पर गिरगिट को मेरा सौदा करते देखा
कानूनों पर बहस सदन में न हो पायी
सारहीन बातों पर मगर झगड़ते देखा
मर्द और औरत के रिश्तों के पुराण से
शायर जी को कभी न आगे बढते देखा
हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा
सूरज से यारी की कीमत चुका चुका हूँ
अपना साया भरी दुपहरी जलते देखा
मेरे माथे की शिकनें गहरी हो आई
बेटी को जब आईने में सजते देखा
बातों का जो खाते मालामाल हुए हैं
हाथों का कारीगर ,पाँव रगड़ते देखा
आँगन में इक अमलतास था बड़ा सजीला
बाबा के जाते ही उस को मरते देखा
सहज तपस्या करता था मैं इक कोने में
देवराज ने सिंहासन क्यों हिलते देखा
2 comments:
"हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा"
"मेरे माथे की शिकनें गहरी हो आई
बेटी को जब आईने में सजते देखा"
वैसे तो पूरी गज़ल ही बहुत खूबसूरत है पर इन ये दो शेर बहुत ही अच्छे लगे।
मर्द और औरत के रिश्तों के पुराण से
शायर जी को कभी न आगे बढते देखा
हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा------
shabdo'n ki moti pirokar ek bahut khubsurat gahzal banayi hai aapne
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