Tuesday, December 6, 2011

ek gazal

जब भी मैंने रात का साया घिरते देखा
साथ सुबह को भी अंगडाई लेते देखा

इक सपना गर लाखों सपनों में ढल जाए
उस सपने को सच में सदा बदलते देखा

तितली के रंगों को छूने की चाहत थी
पर गिरगिट को मेरा सौदा करते देखा

कानूनों पर बहस सदन में न हो पायी
सारहीन बातों पर मगर झगड़ते देखा

मर्द और औरत के रिश्तों के पुराण से
शायर जी को कभी न आगे बढते देखा

हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा

सूरज से यारी की कीमत चुका चुका हूँ
अपना साया भरी दुपहरी जलते देखा

मेरे माथे की शिकनें गहरी हो आई
बेटी को जब आईने में सजते देखा

बातों का जो खाते मालामाल हुए हैं
हाथों का कारीगर ,पाँव रगड़ते देखा

आँगन में इक अमलतास था बड़ा सजीला
बाबा के जाते ही उस को मरते देखा

सहज तपस्या करता था मैं इक कोने में
देवराज ने सिंहासन क्यों हिलते देखा

2 comments:

sushila said...

"हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा"

"मेरे माथे की शिकनें गहरी हो आई
बेटी को जब आईने में सजते देखा"

वैसे तो पूरी गज़ल ही बहुत खूबसूरत है पर इन ये दो शेर बहुत ही अच्छे लगे।

Anonymous said...

मर्द और औरत के रिश्तों के पुराण से
शायर जी को कभी न आगे बढते देखा

हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा------

shabdo'n ki moti pirokar ek bahut khubsurat gahzal banayi hai aapne