Tuesday, May 24, 2011

इन्द्रधनुष

कितना मुश्किल है
रेगिस्तान में चटख हरा रंग देख पाना
धूसर टीलों के बीच
मटियाला या कलिहाया हरा रंग ले
खेजरी और रोहिडा खड़े है वीतराग सन्यासी से

जब प्रकृति उदास,धूसर,ऊदे
रंगों में लिपटी हो
तभी मानवी जिजीविषा होती है रंग-बिरंगी
रेत के उदास रंग नहीं तोड़ पाते
आदमी की रंगीन चाहों को

वो भरता है रंग पंचरंगे साफे में
सतरंगी ओढ़नी में
या फिर गूंथ लेता है
अनगिनत रंगों का गोरबंद.
छोटे छोटे सितारों जैसे कांच
जड़ देता है बिछौने में

रंग फिर झिलमिलाते है
छोटे छोटे सितारों में हज़ार गुना हो कर
लगता है जैसे बिखर गया है सूरज
खंड खंड हो कर
झिलमिला रहे है
हजारों इन्द्रधनुष
आदमी की चाहत के

कितना ही उदास हो रेगिस्तान का रंग
आदमी का रंग कभी उदास नहीं होगा
चाहतें ऐसे ही झिलमिलायेंगी
हजारों इन्द्रधनुष सी

3 comments:

राजेश चड्ढ़ा said...

‎....और ये रेत ही तो है... लोग रेत के घरों में 'मेरा' 'तेरा' का भाव लिये ही जगत से विदा हो जाते हैं.... रेत पर महल बनाते बच्चों की भांति...

sushila said...

इन्हीं धूसर टीलों और और ऊदे रंगों में सावन में तीज (एक लघु जीव) को देख कर कितने आनंद की अनुभूति होती है। बच्चि किस तरह तीज को खोजते हैं बस क्या कहूँ बचपन के वो दिन याद आ गये जब काट्ली नदी की रेत में, टीलों पर लोटा करते थे! इस रेत में एक सम्मोहन है, इस के लोकसंगीत में वो कढिश है कि सैलानी खिंचे चले आते हैं।
आपकी इस सुंदर कविता ने पहुँचा ही दिया बचपन में!

JAYESH DAVE said...

रंग फिर झिलमिलाते है
छोटे छोटे सितारों में हज़ार गुना हो कर
लगता है जैसे बिखर गया है सूरज
खंड खंड हो कर
झिलमिला रहे है
हजारों इन्द्रधनुष
आदमी की चाहत के ... वाह बहुत ही सुन्दर..