महायोगी सूरज रोज तपता है
उदय से अस्त तक
योगी सूरज के इस प्रताप को
समझती रेत
समझदार शिष्या की तरह
पंचाग्नि तापती योगिनी सी
तपती है दिन भर
तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप
बिना किसी शिकायत के
किसी भी चने को भून देने में सक्षम
भाड़ बनी रेत
सिर्फ धमका देती है
अपने बच्चों को
दुबक रहो कहीं भी
जहाँ भी मिल सके थोड़ी सी छांह
प्रेमी चाँद की दुलार भरी
रात की थपकियों से
तीसरे प्रहर तक
कठिनाई से सहज हुई रेत
प्रेम में सराबोर
मृदुल होने का प्रयास कर रही होती है
शीतल हुई रेत भूल जाये शायद
नित्य प्रति का पंचाग्नि तप
तभी सूरज वापिस आने का संकेत देने लगता है
लाल हुई दिशाएं दुन्दुभी बजाने लगती है
सूचना देती हैं योगिराज के आगमन की
रेत चाँद का हाथ झटक
पुनः तैयार हो रही है
गुरु योगिराज के साथ तपने के लिए
योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है
लेकिन रेत पगला जाती है
हवा के झोंको से
चंचला हुई उड़ती फिरती है
हवा क्या है
जो भ्रष्ट करती है
योग और प्रेम दोनों को
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तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप
नदी में रेत जागती है
योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है
daarshniktaa ko darshaatii rachna.
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