Monday, June 6, 2011

tapt ret ka prem

महायोगी सूरज रोज तपता है
उदय से अस्त तक
योगी सूरज के इस प्रताप को
समझती रेत
समझदार शिष्या की तरह
पंचाग्नि तापती योगिनी सी
तपती है दिन भर

तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप
बिना किसी शिकायत के
किसी भी चने को भून देने में सक्षम
भाड़ बनी रेत
सिर्फ धमका देती है
अपने बच्चों को
दुबक रहो कहीं भी
जहाँ भी मिल सके थोड़ी सी छांह

प्रेमी चाँद की दुलार भरी
रात की थपकियों से
तीसरे प्रहर तक
कठिनाई से सहज हुई रेत
प्रेम में सराबोर
मृदुल होने का प्रयास कर रही होती है
शीतल हुई रेत भूल जाये शायद
नित्य प्रति का पंचाग्नि तप

तभी सूरज वापिस आने का संकेत देने लगता है
लाल हुई दिशाएं दुन्दुभी बजाने लगती है
सूचना देती हैं योगिराज के आगमन की
रेत चाँद का हाथ झटक
पुनः तैयार हो रही है
गुरु योगिराज के साथ तपने के लिए

योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है

लेकिन रेत पगला जाती है
हवा के झोंको से
चंचला हुई उड़ती फिरती है
हवा क्या है
जो भ्रष्ट करती है
योग और प्रेम दोनों को

3 comments:

गुड्डोदादी said...
This comment has been removed by the author.
गुड्डोदादी said...

तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप

नदी में रेत जागती है

Nidhi said...

योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है
daarshniktaa ko darshaatii rachna.